
21 मई 2025, अब केवल तिथियों की श्रृंखला में नहीं जुड़ता, बल्कि साहित्य के विवेक में एक दीर्घ प्रतिध्वनि की तरह दर्ज हो गया है. द हार्ट लैंप के लिए बानू मुश्ताक़ को मिला अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार एक किताब या एक लेखिका की विजय भर नहीं है. यह भारतीय भाषाओं की उस सामूहिक आकांक्षा का आलोक है जिसे लंबे समय तक परिधि पर रख दिया गया था.
दीपा भास्ती का अनुवाद इस संग्रह की आत्मा को केवल दूसरी भाषा में नहीं रखता, वह उसे एक नई संवेदना, एक नई स्वीकृति देता है. बिना उसका मूल खोए. यह क्षण हमें स्मरण कराता है कि साहित्यिक भाषा की ताक़त केवल उसके शब्दों में नहीं होती, उसकी नमी, उसकी गंध, उसका मौन भी उतना ही निर्णायक होता है.
यह पुरस्कार उन हाशिए की आवाज़ों का पुनरागमन है, जो अब केवल क्षोभ में नहीं, बल्कि अपनी सांस्कृतिक गरिमा के साथ उपस्थित हैं. यह एक शांत उत्सव है. पर एक ऐसा उत्सव, जिसमें भविष्य की हल्की झलक और अतीत की अनकही पीड़ा दोनों शामिल हैं.
यह जीत है उन हर किसी की जो अपनी भाषा और अपनी कहानियों को छुपा-छुपा कर रखे थे. जैसे कोई फूस के नीचे जलाई गई चिंगारी, जो अब आग बनकर फैल रही है. द हार्ट लैंप सिर्फ किताब नहीं, एक रोशनी है- जो तहख़ानों से निकलकर बाहर आ रही है, और दुनिया को बता रही है कि असली कहानी अब शुरू हुई है.
“मुझे यकीन नहीं हुआ”- बानू मुश्ताक़ की पहली प्रतिक्रिया
"जब मुझे बताया गया कि मेरी कहानी संग्रह ‘दिल की बाती’ को अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार मिला है, तो मुझे यकीन ही नहीं हुआ. मैं कुछ देर तक चुप रही. यह सिर्फ मेरी नहीं, यह कन्नड़ भाषा, दक्षिण भारत की मुस्लिम महिलाओं और समूची भारतीय भाषाओं की जीत है," बानू मुश्ताक़ ने यह कहते हुए भावुकता नहीं छुपाई.
वकील से लेखिका तक: बानू की साहित्यिक यात्रा
बेंगलुरु की वकील, सामाजिक कार्यकर्ता और अब अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मान्यताप्राप्त लेखिका बानू मुश्ताक़ की कहानियों का केंद्र रही हैं वे महिलाएं, जिनकी आवाज़ें अक्सर समाज की मुख्यधारा में नहीं सुनाई देतीं. उनका कथा संग्रह ‘द हार्ट लैंप’ जिसका अंग्रेज़ी अनुवाद, दीपा भास्ती ने किया है 2025 का अंतरराष्ट्रीय बुकर पुरस्कार जीतकर इतिहास रच चुका है. यह न सिर्फ पहली बार है कि किसी कन्नड़ कहानी संग्रह को यह पुरस्कार मिला है, बल्कि यह भी पहली बार है कि दक्षिण भारत की मुस्लिम महिला लेखक को वैश्विक साहित्य मंच पर ऐसा सम्मान प्राप्त हुआ है.
यह एक चुप लेकिन गहन उद्घोषणा है कि साहित्य अब उन कक्षों से निकलकर आ रहा है, जहां चुप्पियां भी सार्थक होती हैं. बानू मुश्ताक़ की लेखनी, अपने अनदेखेपन में, दरअसल बहुत कुछ देख चुकी होती है, और वही उसे विशेष बनाती है.
“मैंने सिर्फ उनकी चुप्पी को सुना”- कहानियों की प्रेरणा
बानू मुश्ताक़ के शब्दों में, “मेरी कहानियां उन महिलाओं की हैं जो इतिहास की किताबों में नहीं मिलतीं. वे घरों की दीवारों के पीछे, गली-कूचों में, छोटे-छोटे संघर्षों में जूझती हैं. वे चुप होती हैं, लेकिन उनकी चुप्पी भी एक भाषा है - जिसे मैंने सुना और लिखा.”
बानू मुश्ताक़ की कहानियां अपने समय और समाज का दस्तावेज़ हैं. उनकी लेखनी में नारी-विमर्श, धर्म, जाति, वर्ग और लिंग जैसे प्रश्न सहजता से उतर आते हैं. वे बिना किसी नारेबाज़ी के, बिना किसी बड़बोलेपन के, केवल कहानियां कहती हैं. लेकिन ऐसी कहानियां जो दिल को छूकर निकलती हैं और सोचने पर मजबूर कर देती हैं.
‘एक्सेंटेड ट्रांसलेशन’ की ताक़त - दीपा भास्ती का योगदान
अनुवादिका दीपा भास्ती ने ‘द हार्ट लैंप’ को ‘एक्सेंटेड ट्रांसलेशन’ कहा है, यानी ऐसा अनुवाद जो मूल भाषा की सांस्कृतिक गंध, लय और टोन को पूरी तरह दूसरी भाषा में बनाए रखे. दीपा कहती हैं, “मैंने कोई सजावट नहीं की, न ही इन कहानियों को पश्चिमी पाठकों के लिए सरल बनाने की कोशिश की. इन कहानियों की आत्मा कन्नड़ में है और मेरा काम केवल उस आत्मा को अंग्रेज़ी में महसूस कराना था.”
उन्होंने इस प्रक्रिया में मूल भावनाओं, स्थानीय रंगों और बोलचाल की सूक्ष्मताओं को बरकरार रखा, ताकि पाठक उस सांस्कृतिक परिवेश को पूरी तरह अनुभव कर सकें जिसमें ये कहानियां जन्मी हैं. उनके इस अनुवाद ने न केवल भाषाई सीमाओं को पार किया, बल्कि साहित्य की विविधता को भी नई उंचाईयों पर पहुंचाया.
पुरस्कार निर्णायकों की नज़र में संग्रह की विशेषता
इस पुरस्कार की निर्णायक मंडली के अध्यक्ष और चर्चित लेखक मैक्स पोर्टर ने इस संग्रह की प्रशंसा करते हुए कहा, “यह संग्रह जीवन से भरपूर, गहराई से राजनीतिक और गहन रूप से मानवीय है. इसकी कहानियां प्रजनन अधिकारों, जातिगत अन्याय और आत्मा की पीड़ा जैसे विषयों से मुठभेड़ करती हैं, लेकिन किसी भी क्षण अपने साहित्यिक सौंदर्य से समझौता नहीं करतीं.”
यह संग्रह अपनी बेबाक आवाज़ और अनूठे दृष्टिकोण से पाठकों को अंदर तक झकझोर देता है.”
हाशिए से केंद्र तक- मुस्लिम महिलाओं की कहानियां
पुस्तक की कहानियां पाठकों को दक्षिण भारत की गलियों में ले जाती हैं- जहां मुस्लिम महिलाओं का जीवन परंपरा, मज़हब, आधुनिकता और संघर्ष के बीच झूलता है. वे मुद्दे जिन्हें मुख्यधारा का हिंदी या अंग्रेज़ी साहित्य अक्सर ‘मार्जिन’ पर छोड़ देता है, यहां वे केंद्र में हैं. यह संग्रह 'पॉलिटिकल' है, लेकिन किसी दिखावे की तरह नहीं, बल्कि एक सूक्ष्म बुनावट की तरह जिसमें कहानी और प्रतिरोध सहजता से साथ चलते हैं.
“मैंने पुरस्कार के लिए नहीं लिखा”- लेखन की ईमानदारी
बानू मुश्ताक़ कहती हैं, “मैंने कभी पुरस्कार के लिए नहीं लिखा. मैंने लिखा क्योंकि मेरे आसपास की ज़िंदगी में कहानियां थीं. मेरी मां, मेरी नानी, मेरी मौसी, मेरी पड़ोसन- इन सबके भीतर एक दुनिया थी, जिसे कोई नहीं लिख रहा था. तो मैंने क़लम उठाई.”
उनकी लेखन शैली में सादगी और सच्चाई की गहराई है, जो पाठकों को सीधे उनके जीवन के जज़्बातों से जोड़ती है. बानू की कहानियां रोज़मर्रा की ज़िंदगी की जटिलताओं को बिना किसी शोले के सामने रखती हैं. जिससे हर एक पात्र अपने भीतर की कहानी खुद बयां करता है. यही ईमानदारी उनकी रचनाओं को विशिष्ट बनाती है.
भारतीय भाषाओं के लिए एक अवसर और चुनौती
इस ऐतिहासिक जीत का असर सिर्फ कन्नड़ साहित्य या दक्षिण भारत तक सीमित नहीं रहेगा. यह समूचे भारतीय साहित्यिक परिदृश्य के लिए एक चुनौती और एक अवसर दोनों है. चेतावनी इस बात की कि अब आप हाशिए की आवाज़ों को अनदेखा नहीं कर सकते. अवसर इस मायने में कि भारतीय भाषाओं के विशाल साहित्यिक संसार को वैश्विक स्तर पर लाने का दरवाज़ा अब खुल चुका है.
यह पुरस्कार एक बार फिर बताता है कि भारतीय भाषाओं का साहित्य केवल क्षेत्रीय नहीं है. वह सार्वभौमिक है. उसमें वह ताक़त है जो सीमाओं को पार कर सकती है. बशर्ते हम अनुवाद और प्रकाशन को गंभीरता से लें. अब ज़रूरत है कि हिंदी, बंगाली, तमिल, मैथिली, असमिया, उड़िया, उर्दू, और दूसरी भारतीय भाषाओं के उत्कृष्ट साहित्य को गुणवत्तापूर्ण अनुवादों के माध्यम से दुनिया के सामने लाया जाए.
‘द हार्ट लैंप’ अब एक वैश्विक रोशनी
बानू मुश्ताक़ और दीपा भास्ती की यह साझा उपलब्धि एक दीपक की तरह है. द हार्ट लैंप सचमुच अब दुनिया को रोशन कर रही है. यह दीपक सिर्फ एक लेखिका के कमरे में नहीं जल रहा, बल्कि उन तमाम भारतीय भाषाओं की आत्मा में उजास भर रहा है, जिन्हें अब तक नज़रअंदाज़ किया गया.
‘द हार्ट लैंप’ हमें यह भी याद दिलाता है कि भाषा की सीमाएं सिर्फ कागज़ पर होती हैं. असल में ये कहानियां सारी दुनिया की हैं- कमजोर, टूटे, मगर फिर भी जलते हुए दीयों की तरह. यह प्रकाश उस ठंडी चुप्पी को तोड़ता है, जो सदियों से दबा रही थी, और कहता है- अब हम हैं, सुनो हमें भी.
साहित्यिक क्षितिज का विस्तार
यह हम सबकी ज़िम्मेदारी है कि हम इस रोशनी को और आगे ले जाएं. और शायद, अब समय आ गया है कि भारत के साहित्यिक केंद्र दिल्ली, मुंबई, और कोलकाता के बाहर देखें, और उन ज़ुबानों को सुनें, जिनमें द हार्ट लैंप’ जैसी कहानियां पल रही हैं.
जब हम इन भाषाओं और उनकी रचनाओं की गंभीरता को समझेंगे. तभी हम अपने देश की सच्ची विविधता और सांस्कृतिक धरोहर को जान पाएंगे. यह एक नई शुरुआत है, एक नया सफर है. जहां हर भाषा को अपनेपन और सम्मान के साथ देखा जाएगा. यही वह क्षण है जब हम साहित्य के सच्चे अर्थ को अनुभव कर सकते हैं. वह जो केवल शब्दों का संगम के साथ जीवन की संजीवनी भी है.
(आशुतोष कुमार ठाकुर बेंगलुरु स्थित प्रबंधन पेशेवर, साहित्य समालोचक, अनुवादक और क्यूरेटर हैं. उन्होंने देश की कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में भारतीय भाषाओं के साहित्य पर लगातार लेखन किया है. उन्हें ashutoshthakur@gmail.com पर संपर्क किया जा सकता है.)
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