
दिल्ली पुलिस को हमेशा अपनी तेजी के लिए नहीं जाना जाता है. बलात्कार से लेकर हत्या तक, राजधानी के पुलिसकर्मियों पर कई जघन्य अपराधों में सुस्त कार्रवाई करने के आरोप लगते रहते हैं. लेकिन आप बस विश्वविद्यालय परिसर की किसी दीवार पर दो-चार नारे लिख दीजिए या कुछ वृतचित्र बना दीजिए तो दिल्ली पुलिस की तत्परता देखने वाली होगी.
न केवल पलक झपकते ही नारों पर सफेदी पोत दी जाएगी बल्कि इसमें शामिल छात्रों को भी दिल्ली पुलिस पकड़कर जेल में डाल देगी. भले ही इन नारों में “सावित्री, फातिमा की विरासत अमर रहे” जैसी कोई बात लिखी हो.
2013 में श्री राम कॉलेज ऑफ़ कॉमर्स में एक कार्यक्रम में गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के भाषण के खिलाफ़ छात्रों के विरोध प्रदर्शन को दिल्ली पुलिस ने लाठीचार्ज और पानी की बौछारों से दबा दिया था. तब से कैंपस में छात्रों की सक्रियता पर चौतरफा हमला हो रहा है.
दलित और मुस्लिम नारीवादी प्रतीकों के सम्मान में नारे हटाने से लेकर शांतिपूर्ण विरोध प्रदर्शन आयोजित करने के लिए छात्रों पर भारी जुर्माना लगाने तक, कैंपस में असहमति पर लगाम कसने का सिलसिला लगातार जारी है.
सीएए और एनआरसी के विरोध के मद्देनजर दिल्ली पुलिस ने जामिया मिलिया इस्लामिया की लाइब्रेरी में लाठी और आंसू गैस के गोले दागे और माओवादी विरोधी अभ्यास ‘ऑपरेशन कगार’ के खिलाफ़ नारे लिखने पर यूनिवर्सिटी गार्ड और पुलिस कर्मियों द्वारा जेएनयू के छात्रों पर हमला किया गया. इस दमन ने कई बार भयावह हिंसक रूप भी ले लिया है.
जेएनयू के छात्र गौरव ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "जब पुलिस वालों ने पूछताछ के दौरान एक छात्र की पिटाई की तो उसके एक कान से खून बहने लगा." उसे और तीन अन्य छात्रों को पहले जेएनयू के गार्डों ने पीटा और फिर पुलिस स्टेशन ले जाया गया.
गौरव ने कहा, "पुलिस वालों ने हमें पीटा ताकि वो उन्हें अपने फोन के पासवर्ड दे दें." उनका अपराध क्या था? जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय की एक दीवार पर "लोग के खिलाफ युद्ध बंद करो" लिखना?
छात्रों का आरोप है कि परिसर में स्वतंत्रता का इतना हनन हो रहा है कि सामूहिक चर्चा के लिए एक साथ बैठे छात्रों के एक समूह को भी विश्वविद्यालय प्रशासन की नाराजगी का सामना करना पड़ता है.
दिल्ली के अंबेडकर विश्वविद्यालय में किस तरह से असहमति के लिए जगह कम की गई है, इस पर एक छात्र शुभोजीत ने कहा, "कक्षा के बाद छात्र जिस भी खुले मैदान में बैठते हैं, उसे फूलों के गमलों से ढक दिया गया है और छात्रों को कक्षा के बाहर विश्वविद्यालय में समय बिताने से रोकने के लिए उनके चारों ओर बाड़ लगा दी गई है."
दिल्ली विश्वविद्यालय में, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर बीबीसी की एक डॉक्यूमेंट्री की स्क्रीनिंग पर प्रतिबंध के खिलाफ़ आयोजित विरोध प्रदर्शन के लिए कम से कम आठ छात्रों को निलंबित कर दिया गया और दो को परिसर से बाहर निकाल दिया गया. प्रदर्शनकारियों का आरोप है कि उन पर बल का भी क्रूर प्रयोग किया गया.
डीयू की छात्रा और प्रदर्शनकारियों में से एक बादल ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया, "छात्र अभी इकट्ठा होना शुरू ही हुए थे कि विश्वविद्यालय के सौ से ज़्यादा गार्डों ने हमें घेर लिया और हम पर हमला करना शुरू कर दिया. पुरुष हो या महिला, किसी भी छात्र को नहीं बख्शा गया. गार्डों ने मुस्लिम छात्राओं के हिजाब भी उतारने की कोशिश की. जल्द ही, दिल्ली पुलिस के जवानों से भरी बसें मौके पर आ गईं. उन्होंने हमारे साथ मारपीट की और फिर हमें हिरासत में ले लिया."
विश्वविद्यालयों में विरोध प्रदर्शनों पर रोक और अभिव्यक्ति की आज़ादी के दमन को छात्र न केवल अपनी आवाज़ पर हमला मानते हैं, बल्कि भारत के लोकतंत्र को खत्म करने के एक बड़े व्यवस्थित प्रयास के हिस्से के रूप में भी देखते हैं. जेएनयू के पूर्व छात्र आकाश भट्टाचार्य ने कहा, "यह हमला उस लोकतांत्रिक परंपरा पर है जिसका प्रतिनिधित्व जेएनयू और एचसीयू (हैदराबाद विश्वविद्यालय) जैसे सार्वजनिक विश्वविद्यालय करते हैं."
कैंपस परिसर में पुलिस की लगातार बढ़ती मौजूदगी और छात्र सभाओं के खिलाफ विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा अधिसूचना जारी करने के साथ, ये विश्वविद्यालय- जो कभी बहस और असहमति के लिए जीवंत स्थान हुआ करते थे, अब भाषण और आलोचनात्मक विचार पर जैसे कोई युद्ध का मैदान बन गए हैं.
मुख्यधारा का मीडिया भी कैंपस की आजादी के खिलाफ सत्तारूढ़ दल की ओर से की जाने वाली घेराबंदी में शामिल हो गया है. टीवी चैनलों ने अक्सर दिल्ली के विश्वविद्यालयों को “राष्ट्र-विरोधी” गतिविधियों का केंद्र करार दिया है और यहां तक कि उन्हें “देश के लिए सबसे बड़े खतरों में से एक” के रूप में पेश किया है.
इन विश्वविद्यालयों की छवि इस हद तक खराब कर दी गई है कि उनके छात्रों को अक्सर नौकरी के अवसर खोजने में कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है. यह हमला अकादमिक क्षेत्र तक भी पहुंच गया है. डीयू के छात्र अभिज्ञान ने कहा, “यह सुनिश्चित करने का प्रयास किया जा रहा है कि हर विश्वविद्यालय की कक्षा में एक शिक्षक हो जो सांप्रदायिक जहर फैलाता हो. आज फासीवाद ने जो हासिल किया है, उसे हासिल करने के लिए आपको आपातकाल [1970 के दशक की तरह] घोषित करने की आवश्यकता नहीं है.”
न्यूज़लॉन्ड्री की यह डॉक्यूमेंट्री छात्रों की अभिव्यक्ति की आज़ादी पर इस व्यवस्थित हमले की पड़ताल करती है.
देखिए हमारी यह पड़ताल.
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