
ट्यूशन फीस में बढ़ोतरी के बारे में छिटपुट शिकायतों के रूप में शुरू हुआ ये मामला, आम आदमी पार्टी और मुख्यमंत्री रेखा गुप्ता के नेतृत्व वाली नई-नवेली भाजपा सरकार के बीच आज एक बड़े राजनीतिक टकराव में बदल गया है.
मौजूदा खींचतान, अप्रैल 2024 में दिल्ली उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश से पैदा हुई, जिसने राजधानी में शिक्षा पर होने वाले खर्च के समीकरणों को बदल दिया है. अदालत ने डीडीए की जमीन पर बने गैर-सरकारी निजी स्कूलों के लिए फीस बढ़ाने से पहले राज्य सरकार की मंजूरी लेने की लंबे समय से चली आ रही शर्त को रद्द कर दिया. इस आदेश से दिल्ली में करीब 335 से ज्यादा निजी संस्थानों के लिए फीस को नियंत्रित करने का तरीका बदल गया है.
जबकि इससे पहले इन 335 स्कूलों को मंजूरी की आवश्यकता थी, दिल्ली के शेष 1,342 गैर-सहायता प्राप्त व मान्यता प्राप्त निजी विद्यालयों के लिए नियंत्रण का एक अन्य तंत्र था: पीड़ित परिवार शिक्षा विभाग के सामने शिकायत दर्ज करा सकते थे, जो तत्पश्चात् जांच करता कि फीस में बढ़ोतरी उचित थी भी या नहीं. हालांकि, दिल्ली अभिभावक संघ ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि इस बार फीस बढ़ने को लेकर ज्यादातर शिकायतें डीडीए की जमीन पर बने 335 स्कूलों से जुड़ी हैं.
भाजपा के शिक्षा मंत्री आशीष सूद ने अब व्यापक स्कूल ऑडिट का वादा किया है, साथ ही पिछली आप सरकार पर जानबूझकर मुसीबत को हवा देने का आरोप लगाया है. सूद ने आरोप लगाया, "सुप्रीम कोर्ट ने 2004 के मॉडर्न स्कूल मामले में आदेश पारित किया था कि दिल्ली के स्कूलों को अपनी फीस बढ़ाने से पहले शिक्षा निदेशालय से अनुमति लेनी होगी... लेकिन उन्होंने (आम आदमी पार्टी) 2024 में दिल्ली उच्च न्यायालय में इस आदेश को खारिज करवा लिया."
उन्होंने पिछली सरकार के कार्यकाल के दौरान कथित तौर पर "मेज-के-नीचे से लिए गए पैसे" की जांच का वादा भी किया.
इस बीच, आप दिल्ली के अध्यक्ष सौरभ भारद्वाज ने भाजपा नेतृत्व और एक शक्तिशाली निजी स्कूल संघ, एक्शन कमेटी अनएडेड रिकॉग्नाइज्ड प्राइवेट स्कूल्स के अध्यक्ष भरत अरोड़ा के बीच मिलीभगत का दावा किया है. ये वही संस्था है जिसने अदालत में सरकारी निगरानी को सफलतापूर्वक चुनौती दी थी.
अरोड़ा ने इस मुद्दे पर टिप्पणी करने से इनकार कर दिया.
इंसानी कीमत
इस बीच, परिवार असमंजस में हैं.
अभिभावकों ने बताया कि मात्र 12 महीनों के अंदर फीस में 18 फीसदी से लेकर 46 फीसदी तक की बढ़ोतरी हुई है, और आगे के लिए भी कोई सहारा दिखाई नहीं देता. स्थिति इतनी निराशाजनक हो गई है कि इंद्रप्रस्थ इंटरनेशनल स्कूल और डीपीएस द्वारका जैसे बड़े स्कूलों के बाहर विरोध प्रदर्शन शुरू हो गए.
मॉडल टाउन के सृजन स्कूल ने अप्रैल, 2024 से फीस में 45 फीसदी का इज़ाफ़ा करके अभिभावकों को चौंका दिया है. यहां अंतरिम आदेश द्वारा सरकारी निगरानी हटाए जाने से पहले ही 30 फीसदी वृद्धि लागू कर दी गई थी, जिसके बाद इस साल अतिरिक्त 15 फीसदी की बढ़ोतरी की गई. जिन अभिभावकों ने इन पर सवाल उठाने की हिम्मत की, तो उन्हें विरोध का सामना करना पड़ा. जब उनके संघ ने विरोध किया, तो स्कूल ने कथित ट्रेडमार्क उल्लंघन और मानहानि के लिए कानूनी नोटिस भेजे.
गौरव गुप्ता, जिनके बच्चे मॉडल टाउन के सृजन स्कूल में पढ़ते हैं, ने कहा, "पिछले साल जब हमने इतनी ज्यादा वृद्धि देखी तो हम हैरान रह गए." गुप्ता का दावा है कि नए दाखिलों को छोड़कर, 2024 से पहले के वर्षों में ऐसी कोई वृद्धि नहीं हुई थी. उन्होंने कहा, "हम बस यही चाहते हैं कि छात्रों पर इसका कोई असर न पड़े." उन्होंने इस बात पर भी चिंता जताई कि फीस न चुकाने की स्थिति में छात्रों के साथ कैसा बर्ताव किया जाता है.
डीपीएस द्वारका में अभिभावकों ने बताया कि महज चार साल में फीस में 105 प्रतिशत की बढ़ोतरी की गई है, जो पहले सरकारी समीक्षा के ज़रिये निर्धारित दरों से कहीं ज्यादा है. अभिभावक दिव्या माटे ने उन छात्रों के खिलाफ उठाए गए कदमों के बारे में बताया, जिनके परिवार नई वित्तीय मांगों को पूरा नहीं कर सकते, उन्होंने दावा किया, "जो बच्चे फीस नहीं चुका पा रहे, उन्हें परेशान किया जा रहा है… उनके नाम काट दिए गए हैं… मानसिक रूप से प्रताड़ित किया जा रहा है."
मयूर विहार फेज-3 में सलवान पब्लिक स्कूल ने भी 2024 के आदेश के पारित होने के बाद से अपनी फीस बढ़ा दी है. नाम न बताने की शर्त पर एक अभिभावक ने दावा किया, "आदेश पारित होने के एकदम बाद स्कूल ने फीस में तुरंत 32 प्रतिशत की बढ़ोतरी कर दी. इस साल उन्होंने फिर से 19 प्रतिशत की बढ़ोतरी की है. हम पिछले साल से इस बढ़ोतरी के बारे में कई बार शिकायत कर चुके हैं, लेकिन किसी ने कुछ नहीं किया."
पुष्प विहार के बिरला विद्या निकेतन में प्रबंधन ने शुरू में 22 फीसदी बढ़ोतरी की मांग रखी थी, लेकिन अभिभावकों के विरोध के बाद इसे थोड़ा सा घटाकर 18 फीसदी कर दिया गया. जबकि मयूर विहार के सलवान पब्लिक स्कूल ने उच्च न्यायालय के आदेश के तुरंत बाद फीस में 32 फीसदी की बढ़ोतरी की, लेकिन उसमें भी इस साल 19 प्रतिशत शुल्क और जोड़ दिया.
एक अन्य अभिभावक ने नाम न बताने की शर्त पर दावा किया, "हमने हाल ही में हुई बढ़ोतरी के बारे में स्कूल प्रशासन को कई बार लिखा, लेकिन हमें कोई सकारात्मक जवाब नहीं मिला है. हमारी चिंता पारदर्शिता को लेकर है, क्योंकि स्कूल ने हमें अभी तक फीस में इतनी ज्यादा बढ़ोतरी का कारण नहीं बताया है.”
ये सारे विद्यालय डीडीए की जमीन पर खड़े हैं.
अभिभावकों ने दावा किया कि शिक्षा विभाग ने इन विवादित रकम को लेकर छात्रों को परेशान करने पर रोक लगाने के लिए कई निर्देश जारी किए थे, लेकिन स्कूलों ने इन आदेशों की अनदेखी की है.
न्यूज़लॉन्ड्री ने इस रिपोर्ट में बताए गए सभी स्कूलों से संपर्क किया. अगर वे जवाब देते हैं तो इस रिपोर्ट को अपडेट कर दिया जाएगा.
संकट जिसे बनने में दशकों लगे
शिक्षा शुल्क में ताज़ा बढ़ोतरी पिछले तीन दशकों से चल रहे संघर्ष की नई लड़ाई है. दिल्ली में पहला बड़ा फीस संकट 1997 में तब शुरू हुआ था, जब स्कूलों ने पांचवें वेतन आयोग द्वारा शिक्षकों के अनिवार्य वेतन में सुधार के बाद फीस में 40 से 400 प्रतिशत तक की वृद्धि लागू की थी.
इसके बाद की कानूनी चुनौतियों ने एक पैटर्न स्थापित किया जो आज भी जारी है, माता-पिता शिकायत दर्ज कराते हैं, स्कूल, सरकार के निर्देशों को चुनौती देते हैं, अदालतें अस्थायी उपायों के साथ हस्तक्षेप करती हैं, समितियां गलत कामों की जांच करती हैं और स्कूल आधिकारिक प्रतिबंधों के बावजूद अपनी कमाई बढ़ाने के लिए नई रणनीतियां तलाश लेते हैं.
1998 में दुग्गल समिति और 2012 में अनिल देव सिंह समिति नामक दो न्यायिक पैनलों ने करोड़ों के "अनुचित" शुल्क दर्ज किए, जिन्हें स्कूलों ने अभी तक अभिभावकों को वापस नहीं किया है. सिंह समिति ने निर्धारित किया कि 604 स्कूलों पर अभिभावकों का लगभग 750 करोड़ रुपये का अतिरिक्त लिया गया पैसा बकाया है.
स्थायी नियामक ढांचे स्थापित करने के कई अवसरों के बावजूद भी दिल्ली की सरकारों ने लगातार व्यापक कानून के बजाय मुख्य रूप से प्रशासनिक परिपत्रों पर भरोसा किया है. 2015 में शुल्क विनियमन कानून बनाने की कोशिश नाकाम रही थी.
फीस बढ़ोतरी को नियंत्रित करने के अभियान में शामिल लोगों ने दावा किया कि दिल्ली सरकार के अधिनियम में इस मुद्दे से निपटने के लिए उचित तंत्र का अभाव था, और अधिनियम ने इसके विपरीत निजी स्कूलों को “पूरा ताकत” दे दी होती.
दिल्ली उच्च न्यायालय के एक वकील अशोक अग्रवाल, फीस बढ़ोतरी को विनियमित करने के अभियान में शामिल रहे हैं और उन्होंने इस समस्या से निपटने के लिए एक विधेयक का मसौदा तैयार करने में मदद की थी. हालांकि, आम आदमी पार्टी की सरकार ने 2015 में दिल्ली विधानसभा में इस कानून का एक कमजोर रूपांतर पारित किया और उसे भी केंद्रीय गृह मंत्रालय ने उचित प्रक्रिया का पालन नहीं करने की वजह से खारिज कर दिया. उन्होंने कहा, “बिल में कई दिक्कतें थीं. मसलन, बिल में इस बात पर जोर दिया गया था कि कोई भी व्यक्ति, फीस में किसी भी इज़ाफ़े को लेकर उस साल के लिए स्कूल की ऑडिट की गई बैलेंस शीट जमा किए जाने के बाद ही शिकायत कर सकता है.”
नियामक में कमी के बीच पैदा हुई अनिश्चितता
इस संकट के मूल में नियामक प्राधिकरण पर चल रहा एक बुनियादी विवाद है. मॉडर्न स्कूल मामले में 2004 के सुप्रीम कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले ने तय किया कि दिल्ली सरकार “शिक्षा के व्यवसायीकरण” को रोकने के लिए फीस वृद्धि को प्रतिबंधित कर सकती है, खास तौर पर दिल्ली विकास प्राधिकरण द्वारा दी की गई जमीन पर बने लगभग 335 स्कूलों के लिए.
अग्रवाल ने न्यूज़लॉन्ड्री से कहा, "फीस पर न्यायालय के फैसले का विश्लेषण कहता है कि स्कूल केवल उतना ही पैसा ले सकते हैं, जितना स्कूल चलाने के लिए ज़रूरी है. एक स्कूल एक छात्र से दूसरे छात्र के खर्च के लिए पैसा नहीं ले सकता. वह इमारतों का निर्माण, एयर कंडीशनर लगाने आदि जैसे पूंजीगत व्यय के लिए भी पैसा नहीं ले सकता." उन्होंने कहा कि स्कूल पूंजीगत व्यय का 15 प्रतिशत तक मांग सकते हैं, लेकिन इसके लिए उन्हें एक अलग खाता खोलना होगा और यह रकम केवल रखरखाव के काम पर ही खर्च की जा सकती है.
2004 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के महत्व के बारे में बात करते हुए अशोक अग्रवाल ने कहा कि "इस फैसले का निहितार्थ यह है कि इसके बाद कई राज्यों ने फीस विनियमन अधिनियम लागू किए. इनमें तमिलनाडु, महाराष्ट्र, गुजरात, पंजाब और उत्तर प्रदेश शामिल हैं.”
तमिलनाडु स्कूल (फीस संग्रह विनियमन) अधिनियम, 2009 में इस बात पर ज़ोर दिया गया था कि सेवानिवृत्त उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली समिति, निजी स्कूलों में किसी भी मानक या अध्ययन के पाठ्यक्रम में प्रवेश के लिए फीस निर्धारित करेगी.
अग्रवाल ने कहा, "हालांकि, अन्य राज्यों द्वारा लागू फीस विनियमन अधिनियमों को सही नहीं कहा जा सकता है, पर कम से कम उन्होंने कुछ तो लागू किया. वहीं दिल्ली को सुप्रीम कोर्ट के फैसले का पालन करने में सालों लग गए, फीस नियंत्रण के लिए कोई विनियमन तो छोड़ ही दीजिए."
अप्रैल 2024 के उच्च न्यायालय के अंतरिम आदेश ने फीस बढ़ाने के लिए पूर्व स्वीकृति की आवश्यकता को हटाकर डीडीए की जमीन पर बने स्कूलों के लिए इस निगरानी तंत्र को प्रभावी रूप से खत्म कर दिया. इससे नियामक में एक रिक्तता पैदा हुई, जिसका विद्यालयों ने बड़ी तेजी से फायदा उठाया.
दिल्ली अभिभावक संघ की अध्यक्ष अपराजिता गौतम नई सरकार के ऑडिट के वादे को मानती हैं, लेकिन तुरंत राहत को लेकर संशय में हैं: "ऑडिट करना आसान नहीं है. इसमें बहुत वक्त और संसाधन लगते हैं… अभिभावकों के लिए कुछ अंतरिम उपाय होने चाहिए, जैसे कि आखिरी मंज़ूर फीस के हिसाब से ही भुगतान करने का निर्देश जारी करना."
"इन स्कूलों को पिछले साल एकल पीठ से अंतरिम राहत मिली थी… अगर शिक्षा विभाग चाहता तो इसे चुनौती दे सकता था… लेकिन उसने कुछ नहीं किया."
अग्रवाल ने यह भी बताया कि दिल्ली स्कूल शिक्षा नियम, 1973 के नियम 170 और 180 के अनुसार, सीएजी और दिल्ली लेखा कार्यालय को हर साल हर स्कूल का ऑडिट करना चाहिए.
नियम 180 में कहा गया है, "गैर-सहायता प्राप्त निजी स्कूल द्वारा रखे गए खाते और अन्य रिकॉर्ड, इस मामले में निदेशक द्वारा अधिकृत ऑडिटर व निरीक्षण अधिकारी और भारत के नियंत्रक व महालेखा परीक्षक द्वारा अधिकृत किसी भी अधिकारी द्वारा जांच के अधीन होंगे."
अग्रवाल ने कहा, "पहला और आखिरी ऑडिट 2009 में हुआ था, वो भी उच्च न्यायालय के दखल के बाद. उस समय उन्होंने 25 निजी स्कूलों के खातों का ऑडिट किया और उनमें से 20 स्कूलों को दोषी ठहराया गया."
न्यूज़लॉन्ड्री ने उनका पक्ष जानने के लिए पूर्व शिक्षा मंत्री आतिशी मार्लेना से संपर्क किया. अगर वे जवाब देती हैं तो उसे इस रिपोर्ट में जोड़ दिया जाएगा.
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मूल रूप से अंग्रेजी में प्रकाशित रिपोर्ट पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.
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