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Newslaundry (हिंदी)
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प्रतीक गोयल

कानून से बरी, सिस्टम के क़ैदी: ‘शक’ के साए में जीने को मजबूर अब्दुल वाहिद शेख

13 मई, 2025 को दोपहर 12.48 बजे, अब्दुल वाहिद शेख अकादमिक सफलता की दहलीज पर खड़े थे. कई सालों के संघर्ष के बाद, ये 47 वर्षीय अध्यापक महाराष्ट्र के छत्रपति संभाजीनगर में महात्मा गांधी मिशन यूनिवर्सिटी में "जेल साहित्य" पर अपनी पीएचडी थीसिस जमा कर रहे थे. एक इंसान जिसने बेगुनाह होते हुए भी नौ साल जेल में बिताए थे, अब अपने अस्तित्व को परिभाषित करने वाले विषय पर ही अपना डॉक्टरेट पूरा कर रहा था.

पर तभी उसका फोन बजा.

कॉल करने वाले ने खुद को घाटकोपर क्राइम ब्रांच का पुलिस अधिकारी बताया. पुलिस का एक वरिष्ठ निरीक्षक वाहिद से मिलना चाहता था. वाहिद से पूछा गया कि क्या वह कार्यालय आ सकता है?

जब वाहिद ने औपचारिक सूचना के बिना आने से मना कर दिया, तो अधिकारी ने एक ऐसा प्रस्ताव रखा जिसने उसे बेचैन कर दिया: "हम आपसे मिलने आएंगे."

यह एक ऐसा ट्रिगर था जो वाहिद को 24 साल पहले शुरू हुए एक बुरे सपने में वापस ले गया, जो खत्म होने होने का नाम नहीं लेता.

वाहिद कहते हैं, "हर बार जब फोन बजता है और पुलिस होती है, तो मैं 2006 में वापस चला जाता हूं. वापस सेल में. वापस यातना में. वापस अपमान में. 2001 से मेरा जीवन फ्लैशबैक, गिरफ़्तारी, दुर्व्यवहार और जेल की एक दास्तान रहा है."

वाहिद के अनुसार, वो 24 साल से लगातार पुलिस उत्पीड़न, दो आतंकी मामलों में 11 साल की कैद, जिसमें वो बाद में बरी हुए, आरोप लगाने वाले अधिकारियों के लिए कोई जवाबदेही नहीं होना और बरी होने के बावजूद भी लगातार निगरानी सहते हुए आ रहे हैं.

ये सिस्टम उन्हें जाने नहीं देता.

इस महीने की शुरुआत में उन्होंने दावा किया कि उनका पता ठिकाने के बारे में पूछने के लिए भी उन्हें एक और कॉल आया था. सितंबर 2024 में अपराध शाखा के अधिकारियों ने कथित तौर पर उसके घर का दौरा किया था, और जब वो काम के पर थे उस दौरान उनकी पत्नी से उनकी दिनचर्या और गतिविधियों के बारे में पूछताछ की थी. अक्टूबर 2023 में, एनआईए अधिकारियों ने कथित तौर पर उसका दरवाजा तोड़ दिया क्योंकि उसने प्रतिबंधित पॉपुलर फ्रंट ऑफ इंडिया पर देशव्यापी कार्रवाई के तहत सुबह-सुबह छापेमारी के दौरान कानूनी वारंट की मांग की थी.

उनके बरी होने के बावजूद, सिमी पर प्रतिबंध को बढ़ाने वाली 2019 की गजट अधिसूचना में उन्हें 2006 के मुंबई ट्रेन धमाकों में शामिल सदस्य के रूप में नामित किया गया था. दिल्ली उच्च न्यायालय में याचिका दायर करने के बाद ही उनका नाम हटाया गया. लेकिन उन्होंने आरोप लगाया कि उत्पीड़न जारी रहा और उन्होंने 2019 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को इसके बारे में लिखा. उन्होंने कहा कि उन्हें 2022 में ही जवाब मिला.

वे कहते हैं, "उन्होंने कहा कि मेरा नाम मुंबई पुलिस के आतंकवाद निरोधी प्रकोष्ठ द्वारा बनाए गए यूनियन वॉर बुक में सूचीबद्ध था, और राष्ट्रीय सुरक्षा और संप्रभुता के हित में निगरानी की जा रही थी." न्यूज़लॉन्ड्री ने महाराष्ट्र पुलिस द्वारा यूनियन वॉर बुक संदिग्ध सूची में नाम जोड़ने पर पहले एक रिपोर्ट की है, जो राज्य के दुश्मनों या संभावित दुश्मनों की सूची है.

लेकिन, जैसा कि वाहिद ने बताया, "मुझे अदालत ने बरी कर दिया है. मैं कोई संदिग्ध व्यक्ति नहीं हूं. यह मेरा देश भी है. और फिर भी मुझे अभी भी पुलिस के अचानक आ धमकने और अप्रत्याशित कॉल का सामना करना पड़ता है. मेरे ऊपर लगातार एक डर मंडराता रहता है कि वे मुझे फिर से फंसाने की तैयारी कर रहे हैं. मैं अक्सर आधी रात को चिंता से जाग उठता हूं, और मुझे लगता है कि पुलिस मेरे दरवाज़े पर खड़ी है. मैंने अपने जीवन के कई साल ऐसे अपराध के आरोप में गंवा दिए हैं जो मैंने कभी किया ही नहीं. यह उत्पीड़न कहीं न कहीं तो ख़त्म होना चाहिए."

महाराष्ट्र एटीएस के एक अधिकारी ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि आतंकवाद के मामले में बरी होने के बावजूद, कोई व्यक्ति "निवारक उपाय" के रूप में यूनियन वॉर बुक संदिग्ध सूची में बना रह सकता है. 

महत्वपूर्ण बात ये है कि वाहिद ने 2017 में कई संस्थाओं जैसे एनएचआरसी, मुंबई पुलिस आयोग, बॉम्बे हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश, को इस जारी पुलिस उत्पीड़न के बारे में लिखा था, पर उनका दावा है कि उन्हें इनमें से किसी भी पत्र का जवाब नहीं मिला.

नतीजतन, वाहिद के परिवार के सदस्य अपने ही घर में कैदी हैं. उनकी पत्नी हमेशा इस डर में रहती है कि दरवाजे पर किसी भी दस्तक का मतलब फिर से जुदाई हो सकता है. उनके चार बच्चे, जिनमें से दो किशोरावस्था के आखिरी पड़ाव पर हैं और दो की उम्र आठ साल से कम है, अपने पिता को फोन कॉल पर चौंकने और किसी के अचानक आने पर हड़बड़ाते हुए देखकर बड़े हुए हैं. जब भी पुलिस आती थी, वाहिद की बुजुर्ग मां घबरा जाती थी, उन्हें डर लगता था कि कहीं उनका बेटा फिर से न उठा लिया जाए.

सिमी और उत्पीड़न के बीज

यह दुःस्वप्न 27 सितंबर, 2001 को शुरू हुआ था. उस समय 23 वर्षीय स्कूल शिक्षक वाहिद, शाम की नमाज के बाद विक्रोली के पार्कसाइट इलाके में एक मस्जिद से बाहर निकले ही थे कि पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया.

वाहिद और सात अन्य लोगों पर स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमेंट ऑफ़ इंडिया या सिमी के सदस्य होने का आरोप लगाया गया था, जिस पर संयुक्त राज्य अमेरिका में 9/11 के आतंकवादी हमलों के मद्देनजर एक दिन पहले ही प्रतिबंध लगाया गया था. जमानत मिलने से पहले उन्होंने दो महीने जेल में बिताए, जो एक शर्त के साथ मिली: उन्हें हर दिन पार्कसाइट पुलिस स्टेशन में रिपोर्ट करना था.

वाहिद ने न्यूज़लॉन्ड्री को बताया कि उन पर न तो औपचारिक रूप से आरोप लगाए गए और न ही उनके खिलाफ लगाए गए विशिष्ट आरोपों के बारे में उन्हें बताया गया. फिर भी अगले चार सालों तक उन्हें 2005 में चार्जशीट दाखिल होने तक रोज़ाना पुलिस के सामने पेश होना पड़ा. इसमें दावा किया गया कि सिमी के प्रतिबंध के बाद वाहिद ने "शांति और सद्भाव को बिगाड़ने" की योजना बनाई थी.

जब 2013 में विक्रोली कोर्ट ने उन्हें बरी किया, तो फैसला साफ़ था: "ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह दर्शाता हो कि आरोपी संगठन के सक्रिय सदस्य थे और उन्होंने हिंसा का सहारा लिया या हिंसा का सहारा लेकर शांति भंग करने या अव्यवस्था फैलाने के इरादे से कोई काम किया." "मुखबिर के बयान को छोड़कर, ऐसा कुछ भी नहीं है जो यह दिखाता हो कि आरोपी सिमी का सदस्य था."

अगर सिमी केस एक प्रस्तावना थी, तो 11 जुलाई, 2006 की घटनाएं वाहिद की आजीवन कारावास की सजा बन गई. उस शाम, सुनियोजित बम विस्फोटों ने मुंबई की सात लोकल ट्रेनों को तहस-नहस कर दिया, जिसमें 180 से ज्यादा लोग मारे गए.

जब धमाकों की खबर टेलीविजन पर आई, तब वाहिद अपनी पत्नी और बच्चों के साथ मुंब्रा में घर पर थे. उस समय उनके पास कोई मोबाइल फोन नहीं था. उन्होंने अपने भाई जुबैर, जो मुंबई में ही रहता था, का हालचाल जानने के लिए अपने लैंडलाइन से एक फोन किया. वाहिद के अनुसार जुबैर ने उन्हें बताया कि उन्हें पार्कसाइट पुलिस स्टेशन से वाहिद के बारे में पूछने के लिए फोन आया था.

अगले दिन, वाहिद स्वेच्छा से पुलिस स्टेशन गया. उसका बयान दर्ज किया गया और उसे जाने दिया गया.

14 अगस्त, 2006 को, अधिकारियों ने वाहिद को एक संक्षिप्त पूछताछ के बहाने उसके स्कूल से उठाया. वह उनकी गाड़ी में बैठ गया और बायकुला पश्चिम के पास डीसीपी (रेलवे) के कार्यालय में ले जाते समय उस पर हमला किया गया. कार्यालय में भी उसके साथ मारपीट जारी रही और उसे बंद करके अधिकारियों ने उससे पूछताछ की, और उसे न भागने की चेतावनी दी. उन्होंने यह भी कहा कि उसे फिर से बुलाया जाएगा.

वो कॉल (जिसका ऊपर जिक्र हुआ) 17 अगस्त को आई थी. कथित तौर पर रात 2 बजे, एटीएस के एक दर्जन अधिकारियों ने वाहिद के घर पर धावा बोला और तोड़फोड़ की. उसे उसके घर से बाहर निकाला गया और कथित तौर पर पीटा गया. फिर उसे कालाचौकी में एटीएस कार्यालय ले जाया गया.

मुकदमे के दौरान, वाहिद ने नवंबर में मुंबई में महाराष्ट्र संगठित अपराध नियंत्रण अधिनियम अदालत के सामने गवाही में पूरा ब्यौरा देने के साथ-साथ शिकायत भी दी.

वाहिद ने आरोप लगाया कि पुलिस ने उसे क्रूर और व्यवस्थित रूप से यातना दी, जिसमें शारीरिक और मानसिक दोनों तरह के शोषण शामिल थे, ताकि उससे जबरन कबूलनामा लिखवाया जा सके. उसने दावा किया कि उसे न्याय का मज़ाक उड़ाने वाले नारे लिखी आटे की चक्की की बेल्ट से पीटा गया, नालबंदी नामक विधि का उपयोग करके उसके हाथों और तलवों को 200 बार कोड़े मारे गए और उसे 180 डिग्री की यातना सहन करने के लिए मजबूर किया गया, जिसमें उसके पैरों को दर्दनाक तरीके से फैलाया गया, जबकि अधिकारी उन पर खड़े थे. उसने कहा कि उनके पेशाब के साथ खून भी निकलता था, उसके जननांगों पर बिजली के झटके लगाए गए और उसकी गुदा में तेल का इंजेक्शन लगाया गया, जिससे असहनीय जलन हुई. कथित तौर पर यातना के तरीकों में जानबूझकर डुबाना, टपकते पानी के पास लंबे समय तक रहना, बहरा करने वाले संगीत से इन्द्रियों को बोझिल करना, और अक्सर परिवार के सामने जबरन नंगा करना शामिल थे. वाहिद ने कहा कि इस सब से हुआ मनोवैज्ञानिक नुकसान बहुत ज्यादा था, जिसमें घबराहट, चिंता और अलगाव और संवेदनाओं पर हमले से होने वाली मानसिक टूटन थी.

उसी शिकायत के अनुसार, परीक्षण के दौरान वैज्ञानिक साक्ष्यों के साथ भी कथित तौर पर छेड़छाड़ की गई थी. वाहिद ने बताया कि अक्टूबर 2006 में उन्हें फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी में नार्को विश्लेषण के लिए बेंगलुरु ले जाया गया था, जहां डॉ. एस. मालिनी ने कथित तौर पर परीक्षण करते समय वीडियो रिकॉर्डिंग में हेरफेर किया था.

महीनों बाद, मालिनी का नाम फिर से सामने आया जब सीबीआई ने हाई-प्रोफाइल सिस्टर अभया हत्या मामले में बेंगलुरु स्थित फॉरेंसिक साइंस लेबोरेटरी पर नार्को सीडी के साथ छेड़छाड़ करने का आरोप लगाया. केरल उच्च न्यायालय और एर्नाकुलम में मजिस्ट्रेट जांच, दोनों ने कहा कि सीडी में हेरफेर किया गया था. 2009 में मालिनी को अपने शैक्षिक प्रमाणपत्रों में जालसाजी करने के आरोपों के बाद एफएसएल से बर्खास्त कर दिया गया था. बाद में उन्हें कर्नाटक उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय ने बहाल कर दिया, जिन्होंने कहा कि उन्हें “उनके खिलाफ आरोपों को स्पष्ट करने या उनका खंडन करने का अवसर नहीं दिया गया”. उनके खिलाफ यह मामला लंबित है.

किसी नतीजे और परिणाम से आज़ाद नेटवर्क

अपने बरी होने तक, वाहिद आर्थर रोड, बायकुला और कोल्हापुर की जेलों के बीच घूमते रहे. इस दौरान उन्होंने कानून की पढ़ाई की और अपना केस खुद लड़ना शुरू किया.

मानवाधिकार वकील शाहिद आज़मी के जरिए सफलता मिली, जिन्होंने वाहिद की शुरुआती कानूनी रणनीति का मार्गदर्शन किया. आज़मी की 2010 में कुर्ला स्थित उनके दफ़्तर में हत्या कर दी गई थी.

आखिरकार 2015 में, अदालत ने वाहिद को बरी कर दिया और उसके खिलाफ दर्ज मामले को बेबुनियाद घोषित किया. आदेश में इस बात पर ज़ोर दिया गया कि "अभियोजन पक्ष यह साबित करने में विफल रहा है कि अभियुक्त ने यूएपीए के तहत दंडनीय अपराध किया है." 2006 के मामले में सभी आरोपों से बरी होने वाले वो अकेले व्यक्ति थे.

लेकिन वाहिद की जिंदगी बर्बाद करने वालों का क्या हुआ?

वाहिद के अनुसार, उसने अपनी शिकायत में जिन अधिकारियों का नाम लिया था, उनमें से ज्यादातर एटीएस के थे, उनके ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की गई. बाद में कई को पदोन्नत कर दिया गया.

केपी सिंह रघुवंशी का नाम वाहिद ने तब लिया था, जब वे महाराष्ट्र एटीएस के प्रमुख थे. वे एडीजीपी और फिर ठाणे कमिश्नर बने और महाराष्ट्र राज्य सुरक्षा निगम के महानिदेशक के पद से सेवानिवृत्त हुए.

एएन रॉय, जिनका नाम वाहिद ने तब लिया था, जब वे मुंबई पुलिस कमिश्नर थे. आगे चलकर वे महाराष्ट्र के डीजीपी बने.

डीसीपी नवल बजाज भविष्य में दक्षिण क्षेत्र और विशेष शाखा के एसीपी बने, मुंबई (प्रशासन) के संयुक्त पुलिस आयुक्त और महानिरीक्षक (कोंकण रेंज). वे आज राज्य के एटीएस के प्रमुख हैं.

अतिरिक्त आयुक्त एसके जायसवाल मुंबई पुलिस आयुक्त बने, फिर महाराष्ट्र के डीजीपी बने. उन्होंने केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल के प्रमुख और सीबीआई के निदेशक के रूप में भी काम किया.

डीसीपी जयजीत सिंह एटीएस प्रमुख, ठाणे पुलिस आयुक्त और भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो के डीजीपी बने.

एसीपी संजय पाटिल के परिसर पर कथित भ्रष्टाचार के मामले में 2021 में सीबीआई ने छापा मारा था. 

वाहिद द्वारा नामित अन्य लोगों में एसीपी किशन सिंघल और वसंत ताजने, अरुण खानविलकर, इकबाल हसन, सचिन कदम और दिनेश कदम सहित कई इंस्पेक्टर शामिल थे.

वसंत ताजने एसीपी के पद से सेवानिवृत्त हुए. अरुण खानविलकर को 2010 में रिश्वत लेने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था; बाद में उन्हें बरी कर दिया गया और उन पर एक पुलिसकर्मी पर हमला करने का आरोप भी लगाया गया. सचिन कदम को 2024 में वरिष्ठ निरीक्षक के पद पर पदोन्नत किया गया और वे आर्थिक अपराध शाखा में थे. दिनेश कदम को एसीपी के पद पर पदोन्नत किया गया. वे नरेंद्र दाभोलकर की हत्या की जांच करने वाली टीम का हिस्सा थे; टीम को उसके घटिया काम के लिए सीबीआई और उच्च न्यायालय ने फटकार लगाई थी.

महत्वपूर्ण बात यह है कि नवंबर 2006 में, मुंबई के एक पुलिस अधिकारी ने कथित तौर पर एक चिट्ठी लिखी, जिसमें दावा किया गया था कि ट्रेन विस्फोटों में निर्दोष लोगों को फंसाया जा रहा है. आरोपियों में से एक ने इस चिट्ठी की एक प्रति मांगने के लिए एक आरटीआई आवेदन दायर किया, लेकिन मुख्य सूचना आयोग ने राष्ट्रपति सचिवालय को एक हलफनामा दायर करने का निर्देश दिया जिसमें कहा गया कि ऐसी किसी चिट्ठी का कोई रिकॉर्ड नहीं है.

जैसा कि वाहिद ने कहा, "हमारे देश में त्रासदी यह है कि जो अधिकारी जांच में चूक करते हैं और निर्दोष लोगों को फंसाते हैं, वे बिना किसी सजा, बिना नुकसान, बिना किसी सजा के खुलेआम घूमते हैं. लेकिन जो लोग निर्दोष हैं और अदालत से बरी हो चुके हैं, वे लगातार निगरानी और संदेह के घेरे में रहते हैं."

एटीएस के तत्कालीन प्रमुख केपी रघुवंशी ही इस रिपोर्ट को प्रकाशित करने के समय प्रतिक्रिया देने वाले एकमात्र व्यक्ति थे. उनसे विशेष रूप से उन आरोपों के बारे में पूछा गया था कि वाहिद को प्रताड़ित किया गया और फंसाया गया.

उन्होंने जवाब दिया, "यदि जांच अधिकारी का इरादा नेक है और दुर्भावनापूर्ण नहीं है, तो कानून उसे सुरक्षा प्रदान करता है. यहां तक ​​कि अगर वह अपने आधिकारिक कर्तव्य के दौरान कोई गलती करता है, तो उसे सुरक्षा प्रदान की जाती है, जब तक कि उसके कार्यों में दुर्भावनापूर्ण इरादे न हों. आतंकवाद से संबंधित मामलों में आरोपी व्यक्तियों के बारे में अक्सर माना जाता है कि वे चरमपंथी प्लेबुक का पालन करते हैं, जो कथित तौर पर उन्हें जांचकर्ताओं को गुमराह करने, पुलिस के खिलाफ झूठे आरोप लगाने और यहां तक ​​कि भ्रम पैदा करने और सजा से बचने के लिए असंबंधित आरोपों को स्वीकार करने का निर्देश देते हैं."

न्यूज़लॉन्ड्री ने मालिनी, महाराष्ट्र गृह विभाग, डीजीपी और घाटकोपर क्राइम ब्रांच से वाहिद के आरोपों के बारे में पूछा. हमने एनएचआरसी (राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग) से भी संपर्क किया और पूछा कि उसने पुलिस उत्पीड़न के बारे में वाहिद की शिकायत का जवाब क्यों नहीं दिया. अगर वे जवाब देते हैं तो इस रिपोर्ट को अपडेट किया जाएगा.

‘अधिकारियों के खिलाफ एफआईआर होनी चाहिए’

कानूनी विशेषज्ञ बुनियादी संरचनात्मक विफलताओं और जवाबदेही की आवश्यकता की ओर इशारा करते हैं. बेंगलुरु स्थित सेंटर फॉर लॉ एंड पॉलिसी रिसर्च की एक रिपोर्ट में कहा गया है, “पुलिस अधिकारियों के लिए उपलब्ध प्रक्रियात्मक सुरक्षा उनके खिलाफ आपराधिक शिकायत दर्ज करते समय एक बाधा है. हालांकि, अदालतों ने माना है कि सीआरपीसी की धारा 197 और 132 के तहत सरकार की मंजूरी की आवश्यकता नहीं है, लेकिन यह अक्सर एक दुरुपयोग किया जाने वाला प्रावधान है, जो आम लोगों को उनके खिलाफ एफआईआर दर्ज करने से रोकता है. पुलिस की ज्यादतियां अक्सर उत्पीड़न और चोटों का कारण बनती हैं, लेकिन जरूरी नहीं कि यह मौलिक अधिकारों का उल्लंघन हो.”

सुप्रीम कोर्ट के वरिष्ठ वकील कॉलिन गोंजाल्विस ने कहा, "यहां तक ​​कि जब अदालतें अभियोजन पक्ष के खिलाफ सख्त आदेश पारित करती हैं या स्पष्ट रूप से बताती हैं कि पुलिस ने दुर्भावनापूर्ण इरादे से काम किया है, तब भी जांच अधिकारियों के खिलाफ कोई कार्रवाई नहीं की जाती है. यह पूरी तरह से न्यायपालिका की विफलता है. जैसे ही अदालत को लगता है कि मामला मनगढ़ंत है, उसे न केवल आरोपी को बरी कर देना चाहिए, बल्कि जिम्मेदार अधिकारियों के खिलाफ तुरंत एफआईआर दर्ज करने का आदेश भी देना चाहिए."

मानवाधिकार वकील लारा जेसानी ने व्यवस्थागत समस्याओं की पहचान की. उन्होंने कहा, "मुकदमे सालों तक चलते रहते हैं. जांच अधिकारी भारी-भरकम आरोप-पत्र दाखिल करते हैं, जमानत नियमित रूप से खारिज कर दी जाती है, और आरोपी बरी होने से पहले अपने जीवन का काफी हिस्सा सलाखों के पीछे बिताते हैं. जब तक वे रिहा होते हैं, तब तक कई लोग डर के कारण पुलिस के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करने से बचते हैं, या फिर से फंसाए जाने के डर से."

अपने सदमे को वाहिद ने अपना मकसद बनाया है. उनकी पुस्तक और उनके यूट्यूब चैनल, दोनों का नाम "बेगुनाह कैदी" है, जहां वो ऐसे ही झूठे मामलों में जेल भेजे जाने की कहानियों को बताते हैं. और, जब तक पुलिस कॉल करती रहेगी, अब्दुल वाहिद शेख जवाब देते रहेंगे.

यह रिपोर्ट उन लोगों की बदौलत संभव हुई है जिन्होंने पुलिसिया ज्यादती की कहानी उजागर करने वाले हमारे सेना प्रोजेक्ट में योगदान दिया. अगर आपको यह रिपोर्ट पसंद आई है, तो हमारी आगामी सेना प्रोजेक्ट ई-वेस्ट का अंडरवर्ल्ड में हमारी मदद करें. 

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