
बिहार की राजनीति दशकों से दो नामों के इर्द-गिर्द घूम रही है. लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार. लालू यादव आज सक्रिय राजनीति से दूर हैं, लेकिन नीतीश अब भी पूरी तरह सक्रिय हैं. वह एक बार फिर जनता से अपने लिए पांच साल का वक्त मांग रहे हैं. बिहार के सबसे लंबे समय तक मुख्यमंत्री रहने वाले नीतीश कुमार को “सुशासन बाबू” कहा गया, लेकिन बीस साल बाद नीतीश बदले-बदले नजर आते हैं.
बीते कुछ वर्षों में उनके स्वास्थ्य, व्यवहार और फैसलों को लेकर कई तरह की अटकलें उठी हैं. प्रधानमंत्री के पैर छूने की तस्वीरों से लेकर सार्वजनिक मंचों पर किए असामान्य बर्ताव ने उनकी सुलझे और ठहरे हुए नेता की छवि को नुकसान पहुंचाया है.
सत्ता के गलियारों में फुसफुसाहट है कि उन्हें ‘भूलने की बीमारी’ हो गई है. ऐसे में उनके चारों ओर कुछ अधिकारियों और नेताओं ने एक घेरा बना लिया है जो असल में उनके फैसलों को नियंत्रित करते हैं. पार्टी में भी समीकरण बदले नजर आते हैं. जेडीयू के शीर्ष नेताओं में संजय कुमार झा, लल्लन सिंह और विजय चौधरी का नाम शामिल हैं. लेकिन उनकी जातीय स्थिति उन्हें नीतीश का स्वाभाविक उत्तराधिकारी नहीं बनने देती. नीतीश के बेटे निशांत कुमार भी अब तक सक्रिय राजनीति में कोई रुचि दिखाने में असफल रहे हैं.
इस स्थितियों के बीच यह सवाल बड़ा होता जा रहा है कि नीतीश कुमार के बाद जेडीयू और उसकी सोशल इंजीनियरिंग का क्या होगा. क्या बिहार का “अति पिछड़ा- महादलित-महिला गठबंधन” नीतीश के बिना जिंदा रह पाएगा? और क्या भाजपा, चुनाव के बाद नीतीश को वैसा ही झटका दे सकती है जैसा मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान को दिया गया था?
इन्हीं सवालों के जवाब टटोलती यह विशेष टिप्पणी देखिए.
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